छीन रहा है बचपन, भारी होते बस्ते.
वतृमान में बच्चों के भारी होते बस्तों से त्रस्त है लेकिन प्रतिस्पर्धा और सबसे आगे रहने की चाह में खुलकर कोई भी इसका विरोध नहीं करता है और नहीं खुद से कोई पहल ही करता है क्योकि बदले समय के लिहाज से अब यह अवश्यक लगता है। डिज़िटल युग में आज बच्चों की मनोव्रती भी बदल बदल गई है। परिस्थितिवश खेल कूद और अन्य गतिविधियों से उनका मोह भंग हो गया है। मैदानी अभिरुचि का स्थान किताबों और यांत्रिकता ने ले लिया है। मोबाइल और कम्प्युटर भी अधुनिक शिक्षा के पर्याय बनते जा रहे हैं।7 सामान्य या विष्यगत शिक्षण के अलावा इन विषियों की पुस्तको का बोझ भी बढ़ा ही है। नर्सरी और घर में भी मिल रहे इस ज्ञान का ही प्रतिफल है कि आज दो-तीन साल का बच्चा भी आप हमसे ज्यादा अच्छे से मोबाइल को संचालित कर लेता है। मोबाइल के गेम उसे भाते हैं। इसे देख हम भी हर्षित तो होते ही हैं और जब तब दूसरों के सामने इसका गुड़गान भी करते रहते हैं। यही प्रशंसा उन्हे अन्य गतिविधियों और मेदानी खेल से दूर करती है। शहरो मे जब रहने के ठिकाने ही छोटे हो गए हो तो असपास खेल की सुविधाओं की बात करना भी बनानी है, जिससे बच्चे घर में ही केद से हो गए हैं। ऎसे में बच्चे सीमित दायरे में केद हो गए हैं। घर से स्कूल और स्कूल से घर ही उनकी दिनचर्या हो गई है। रही सही कसर कोचिंग क्लासेज ने पूरी कर दी है। अव्वलता प्राप्त करने की होड़ या भय ने उन्हे ग्रसित कर मानसिक रूप से कमजोर बना दिया है जो चिंताजनक है। यह हम पर भी निर्भर करता है कि हम बस्ते के बोझ का रोना रोए या कोई सकारात्मक पहल खुद से शुरू करे। विकास के युग में बस्ते का बोझ यदि अवश्यक है तो यह भी जरूरी है कि बच्चों की मानसिकता पर इसका असर न होने पाए। ध्यान तो इसका सबको रखना ही होगा।
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